लालकुआं। वन अनुसंधान केंद्र में तीन वर्ष पूर्व लगाये गये हिसालू के फल पौधों में फल पकने लगे हैं. वन अनुसंधान केंद्र के रेंज अधिकारी मदन सिंह बिष्ट ने बताया कि लालकुआं अनुसंधान केंद्र में 3 वर्ष पूर्व एक जन स्वास्थ्य वाटिका बनायी गयी, जिसमें ओषधीय महत्व के ढाई सौ से अधिक प्रजातियां रोपित की गयी है, उसी में पहाड़ पर उगने वाले हिसालू, किल्मोड़ा, धिघारू भी लगाये गये, इन सभी पौधों में फल आने लगा है, हिसालु जिसका वानस्पतिक नाम “रुबस एलिप्टिकस” है. इसे ‘हिमालयन रसभरी’ भी कहा जाता है. यह फल खाने में बड़ा स्वादिष्ट होता है. रेंजर मदन बिष्ट ने यह भी बताया कि लालकुआं में तराई की जलवायु में यह पौधे काफी स्वस्थ्य है, जिसमें काफी फल आ रहे है. पके फल के स्वाद के बारे में बिष्ट ने बताया कि पहाड़ पर पकने वाले फल से कम स्वादिष्ट है, हिसालु मधुमक्खी एवं तितलियों के संरक्षण के लिए भी महत्वपूर्ण प्रजाति है. इसके फल, पत्ते एवं जड़ का पेट के रोगों में औषधि महत्व भी है।
उन्होंने बताया कि विशुद्ध रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में 1200 मीटर से 1800 मीटर की ऊंचाई पर उगने वाली वनस्पति हिसालु और घिंघारू तराई क्षेत्र के लालकुआं में फल फूल रहे है, ये एक चमत्कार जैसा है, दरअसल वन अनुसंधान केन्द्र लालकुआं में विगत तीन वर्ष पूर्व एक जन स्वास्थ्य वाटिका बनाई गई, जिससे विभिन्न प्रकार के औषधि प्रजातियों को रोपित किया गया, इन प्रजातियों में पर्वतीय इलाकों में उगने वाले हिसालु और घिंघारू को भी रोपित कर दिया, वाटिका का लालन-पालन ठीक से किया गया, जिसका परिणाम यह है कि घिंघारू के बाद अब हिसालु पर फल लग कर अब पक रहे हैं, वन अनुसंधान केन्द्र के वन क्षेत्राधिकारी मदन सिंह बिष्ट का कहना है कि चूंकि इन पौधों का प्राकृतिक वास स्थल पहाड़ी इलाका है, परन्तु तराई भाभर में लगाने पर ये बढ़िया चल रहे है, तीन वर्ष में फल आकर पकना ये नयी बात है, मदन सिंह बिष्ट ने बताया कि ये फल औषधि गुणों से भरपूर हैं, हृदय रोगियों के लिए यह फल रामबाण है, इसके अलावा पेचिश, मधुमेह में भी लाभदायक है।
फोटो परिचय- लालकुआं वन अनुसंधान केंद्र में लगाए गए हिसालु के पौधे पर आए फल