हिंदी लगातार वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थिति और ताकत बढ़ा रही है, पर उसे अपने ही घर में एक स्तर पर उपेक्षा भी झेलनी पड़ रही है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2006 में दस जनवरी के दिन से विश्व हिंदी दिवस मनाने की घोषणा का पहला और अहम उद्देश्य था, अपनी प्यारी हिंदी को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करना। विश्व हिंदी दिवस मनाने के जरिये भारतीय दूतावासों ने हिंदी के वैश्विक विस्तार को बढ़ावा देने की कोशिशें शुरू कीं। इस बहाने दुनिया भर के लोगों को हिंदी की ओर आकर्षित करने की कोशिश बढ़ी। निश्चित तौर पर हिंदी लगातार वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थिति और ताकत बढ़ा रही है। लेकिन हिंदी को अपने ही घर में एक स्तर पर उपेक्षा भी झेलनी पड़ रही है।
भारतीय विमर्श और शिक्षा के माध्यम के रूप में अब भी हिंदी हाशिये पर है। हिंदी में अब भी विमर्श दोयम दर्जे का माना जाता है। उच्च शिक्षा में हिंदी भाषा और साहित्य के रूप में कुछ धाक भले ही बना रखी हो, लेकिन तथ्य है कि तमाम कोशिशों के बावजूद वह अब भी शैक्षिक माध्यम नहीं बन पाई है। यही वजह है कि वैश्विक प्रसार के बावजूद हिंदी ताकतवर और प्रतिष्ठित नहीं बन पा रही है। हिंदी के वैश्विक प्रसार का जरिया उदारीकरण भी बना, जिसकी निगाह भारत के उस विशाल मध्य वर्ग पर थी, जिसकी क्रय शक्ति लगातार बढ़ रही थी। हिंदी की इस क्षमता को न्यूज कॉरपोरेशन के प्रमुख और मीडिया की दुनिया के वैश्विक बादशाह रूपर्ट मर्डोक पहले ही स्वीकार कर चुके थे। उन्होंने इक्कीसवीं सदी की आहट के बीच ही हिंदी को भावी दुनिया की पांच ताकतवर भाषाओं के रूप में पहचान लिया था। इसी के बाद उन्होंने भारत में अपने स्टार समूह के चैनलों के
विस्तार की रणनीति बनाई।
हिंदी समझने और बोलने वालों की संख्या हो या इंटरनेट पर हिंदी के विस्तार के आंकड़े, वे सभी उत्साहवर्धक हैं। आज दुनिया भर में 150 से ज्यादा देशों के 200 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। अमेरिका के 30 से ज्यादा विश्वविद्यालयों व शैक्षिक संस्थानों में हिंदी की पढ़ाई हो रही है। इसी तरह जर्मनी के 15 संस्थानों में हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन हो रहा है। ब्रिटेन की लंदन, कैंब्रिज और यार्क यूनिवर्सिटी में भी हिंदी पढ़ाई जाती है। चीन, जापान, हंगरी, रूस आदि देशों में भी हिंदी की पढ़ाई हो रही है। यही नहीं, भारत की बेहतर जानकारी के लिए दुनिया भर में करीब सवा सौ संस्थानों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है।
एक आंकड़े के मुताबिक, विश्व में करीब एक अरब से ज्यादा लोग न सिर्फ हिंदी बोल सकते हैं, बल्कि वे इसे लिख और समझ भी रहे हैं। भारत में स्थानीय राजनीति से प्रभावित स्थानीय अस्मिता बोध के चलते स्थानीय भाषाओं को तवज्जो देने की सोच भले ही मजबूत हो रही है, लेकिन हर राज्य में हिंदी बोलने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विश्व में हिंदी तीसरे स्थान पर भले ही हो, परंतु नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, मलयेशिया, ब्रिटेन, अमेरिका जैसे देशों में हिंदी के जरिये भारतीयता भी विकसित हो रही है। इसी तरह फिजी, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम में हिंदी को अल्पसंख्यक भाषा का दर्जा हासिल हो चुका है।
मगर हिंदी का चाहे जितना भी वैश्विक विस्तार हो, जब तक वह उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थापित नहीं होगी, विमर्श और प्रशासनिक नीति निर्धारण की भाषा नहीं बन सकती। नीति निर्धारकों और प्रशासनिक तंत्र की भाषा अब भी अंग्रेजी ही है। इसलिए हिंदी विमर्श का माध्यम भी नहीं बन पा रही है। इसका असर है कि हिंदी समाज और संस्कृति की मूल परेशानियां अब तक मुख्यधारा में गंभीर चिंता का विषय नहीं बन पाई हैं। अब भी प्रशासनिक तंत्र का मुख्य कार्य अंग्रेजी में होता है और हिंदी में उसका अनुवाद भर होता है। नीति नियंता यह नहीं सोच पाते कि हर भाषा की अपनी सांस्कृतिक परंपरा होती है, उसका अपना चिंतन होता है और इस लिहाज से उसकी अपनी समस्याएं भी होती हैं।उस समस्या को वही समझ पाएगा, जो उस भाषा की सीमा और संस्कृति-दोनों को समझता हो। विमर्श और शैक्षिक माध्यम बनने के पीछे ये भी मूल कारक होते हैं। हिंदी के वैश्विक विस्तार और प्रसार के साथ इस तथ्य की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।